सामाजिक >> माधव लौटा अपने गाँव माधव लौटा अपने गाँवराम गोपाल शर्मा दिनेश
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ग्राम्य विकास की नई चेतना पर आधारित रोचक उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
इमसें प्रसंगवश आधुनिक नगर सभ्यता की उन बुराइयों से बचने की ओर भी संकेत
किया गया है जो हमारे ग्राम्य जीवन को विषाक्त करके देश के उत्थान में
बाधक बन रही हैं। गाँवों में रहनेवाले लोग अपनी उन्नति अपने आप किस प्रकार
कर सकते हैं तथा सरकार की योजनाओं को सफल बनाने में क्या सहयोग दे सकते
हैं यह दिखाना भी मेरा ध्येय रहा है। इस कहानी में चल रहे विकास कार्यों
के परिणाम की एक झाँकी भी स्वतः प्रस्तुत हो गई है।
अपनी बात
इस पुस्तक में सरल भाषा और रोचक शैली में महात्मा गांधी के सपनों का नया
भारत नए गाँव के वातावरण में उदय होता दिखाया गया है। प्रसंगवश आधुनिक
नगर-सभ्यता की उन बुराइयों से बचने की ओर संकेत भी किया गया है, जो हमारे
ग्राम्य-जीवन को विषाक्त करके देश के उत्थान में बाधक बन रही हैं। गाँवों
में रहने वाले लोग अपनी उन्नति अपने आप किस प्रकार कर सकते हैं तथा सरकार
योजनाओं को सफल बनाने में क्या सहयोग दे सकते हैं, यह दिखाना भी मेरा
ध्येय रहा है। इस कहानी से देश में चल रहे विकास-कार्यों के परिणाम की एक
झाँकी भी स्वतः प्रस्तुत हो गई है। आशा है, नवसाक्षर ग्रामीण भाई इस
पुस्तक को पढ़कर अपने जीवन का दिशा-निर्देशन करने में सफल होंगे।
रामगोपाल शर्मा ‘दिनेश’
माधव लौटा अपने गाँव
माधव डाकगाड़ी से लौट रहा था। बंबई की चहल-पहल पीछे छूट चुकी थी। रात के
घने अँधेरे में उसकी गाड़ी पहाड़ों के बीच धड़धड़ाती चली जा रही थी। वह
जिस डिब्बे में था, उसमें ज्यादा भीड़ नहीं थी, इसलिए उसे लेटने के लिए
काफी जगह मिल गई थी। कुछ मुसाफिर बैठे-बैठे ऊँघ रहे थे और कुछ सामान रखने
की जगह पर बिस्तर बिछाकर टाँगें फैलाए सो रहे थे।
माधव भी सोने की बहुत कोशिश कर रहा था, पर उसकी आंखें बार-बार खुल जाती थीं। वह लगभग आठ साल पहले बंबई आया था। उस समय उसकी उमर चौदह साल के करीब थी। मां-बाप ने उसको पास के एक गांव में पढ़ने भेजा था, पर वह एक आवारा लड़के की बातों में आकर शहर देखने के लालच में यहाँ तक चला आया था। बहुत तकलीफें सहने के बाद वह एक दुकान पर नौकर हो गया था और तब से अब तक उसने बहुत कुछ कमाया-खाया था। गाँव में माँ-बाप उसकी याद में रोते रहे, खोजते रहे और जब पता न चला, तब दुःख में घुल-घुलकर दुनिया से उठ गए। माधव को शुरु में कुछ दिन घर की याद आयी और उसने अपने साथी को एक पत्र डाला। उसमें उसने अपना पता लिखा और अपने माँ-बाप के हाल-चाल पूछे। उस पत्र का जो जवाब आया, उसे पढ़कर वह घंटों फूट-फूट कर रोता रहा। फिर जल्दी घर पहुँचने के लिए डाकगाड़ी में सवार हुआ। दुःख को भुलाने के लिए वह सो जाना चाहता था, पर गाँव की बचपन की बातें और माँ-बाप का प्यार उसे बार-बार याद हो आता था। जब घर पहुँचने पर वह माँ-बाप को न देख सकेगा, यह बात ध्यान में आते ही उसका दिल धड़कने लगता था।
वह सोच रहा था कि जब मैं छोटा था, तब गाँव की गलियों में खेला करता था। गाँव के साथी बालक सवेरा होते ही मुझे बुलाने घर आ जाते थे। मैं सोता होता था, तो माँ बड़े प्यार से जगाती थी। वह तब तक गाय-भैंस का दूध दुहकर गरम कर चुकती थी और दही मथकर माखन निकाल रखती थी। मैं आँखें मलता हुआ उठता था, वह मेरा मुँह धोती थी। मैं खाने को कुछ माँगता था, तो दही और माखन के साथ रोटी मिलती थी। जब चाहता था, तब मन भर कर दूध पीता था। मैं छोटी-छोटी बातों पर रूठ जाता था तो माँ मनाती थी और जो माँगता था, वही देती थी।
बाप का प्यार वह भूला नहीं था। बार-बार उसे बीते दिनों की याद आती थी। वह सोच रहा था वे दिन, जब वह अपने बाप के साथ पास के बाजार या हाट में जाया करता था। राह में जब वह थक जाता था, तो उसके पिता उसे बड़े प्यार से गोदी में ले लेते थे। वे जब कभी बाहर से आते थे, तो उसके लिए खाने को मिठाई लाते थे।
यों ही माधव रात-भर सोचता रहा। दिन में गाड़ी के साथ दौड़ते हुए खेतों और पेड़-पौधों को देखकर अपने गांव की तस्वीर मन में खींचता रहा। एक रात और एक दिन बराबर गाड़ी में सफर करने के बाद जब वह अपने गाँव के पास स्टेशन पर उतरा तो उसके पैर भारी होने लगे। वह जल्दी-जल्दी घर की ओर चलना चाहता था, पर पैर पीछे को पड़ते जान पड़ते थे। जब गांव के पास आया तो वह सुदामा की तरह लुटा-लुटा सा पुरानी बातें ढूँढ़ने लगा। जिन दिनों वह गाँव में रहता था, उन दिनों वहाँ कीचड़ से भरी गंदी नालियाँ थीं, कोई भी मकान पक्का नहीं था, गाँव वाले खेती-बारी के काम या आपस में लड़ने-झगड़ने के सिवा और कुछ न जानते थे। पर अब तो वहाँ का नक्शा ही बदल गया था। गाँव में घुसते ही माधव ने एक पक्का मकान देखा। उस पर पंचायतघर लिखा हुआ था और वह बिजली की रोशनी में जगमगा रहा था। वहाँ एक रेडियो भी बज रहा था। बहुत-से आदमी टाटों पर बैठे हुए खबरें सुन रहे थे। माधव को कई साल बाहर रहते हो गए थे, तो भी उन्हें उसको पहचानने में देर न लगी। कई आदमी खुशी से उसकी ओर दौड़े और बड़े प्यार से उसे गले लगाने लगे। उसने भी माँ-बाप का ध्यान भूलकर बड़ों के पैर छुए, साथियों से गले मिला और छोटों को प्यार दिखाया। उसे ऐसा लगा, मानो वे सब उसी के घर के आदमी हैं। बंबई में वह इतने साल रहा, बहुत-से लोगों के साथ उठा-बैठा, पर वहाँ उससे इतना प्यार किसी ने भी नहीं किया था।
पंचायतघर में भीतर घुसकर उसने तरह-तरह के अखबार देखे। वहाँ गाने-बजाने की चीजें भी एक ओर सजाकर रखी गई थीं। माधव ने अचंभे के साथ एक बूढ़े आदमी से पूछा-‘‘बाबा ! यह पंचायतघर किसने बनवाया है ?’’
बूढ़े ने जवाब दिया—‘‘बेटा ! हम लोगों ने इसे अपनी मेहनत से बनाया है।’’
माधव शहर में रहता था, पर उसे अपने कामकाज से इतनी फ़ुर्सत नहीं मिलती थी कि वह देश के गाँवों में होने वाली तरक़्की का हाल जान सके। सन् सैंतालीस में जब उसका शहर सजाया गया था और हिंदू-मुसलमानों के झगड़े हुए थे, तब वह इतना तो जान गया था कि अंग्रेज़ चले गए और देश आज़ाद हो गया। उसके बाद कभी-कभी वह लोगों से यह भी सुन लेता था कि आज़ादी आई है, तब से देश में बहुत तरक़्क़ी हो रही है। उसके शहर में भीड़ बढ़ने लगी थी। अँग्रेज कम दीखने लगे थे। औरतें और आदमी पहले से ज़्यादा सज-धजकर सड़कों पर घूमते नज़र आते थे। माधव इसे तरक्की समझता था। गाँव की ओर ध्यान जाने पर कच्चे घर, बरसात में कीचड़ और पानी से भरी गलियाँ और चारों ओर सोती हुई जिंदगी उसे नज़र आती थी। बूढ़े बाबा के जवाब को सुनकर वह भौंचक्का-सा खड़ा रह गया।
बोला—‘‘बाबा ! आप लोगों को मेहनत से ऐसा बड़ा काम कैसे हो गया ? मेहनत तो आप लोग हमेशा करते रहे हैं, पर पहले तो कभी गाँव में एक ईंट भी कोई नहीं जुटा पाया था ?’’
वह बूढ़ा आदमी कुछ हँसा और बोला—‘माधव ! मेहनत-मेहनत में फ़र्क़ होता है। पहले हम केवल अपने लिए अलग-अलग मेहनत करते थे, पर अब गाँव की तरक़्क़ी के लिए सब मिलकर मेहनत करते हैं। जब तुमने बचपन में यह गाँव देखा था, तब अंग्रेज़ों का राज था। ज़मींदार, महाजन, दलाल, पुलिस, मुखिया आदि अनेक लोग मिलकर हमारी मेहनत का फल लूट लेते थे। पर अब तो हम आज़ाद हैं। अब हमें लूटने वाला कोई नहीं है। इसलिए जो मेहनत हम करते हैं, उसका फल भी हम खाते हैं। पहले हमको ज़्यादातर बेगार में काम करना पड़ता था, पर अब हमसे बेगार लेने वाला कोई नहीं। इसलिए अब हम लोग जहाँ जरूरत होती है, वहाँ मिलकर श्रमदान यानी बिना पैसा लिए सबकी भलाई का काम करते हैं। यह पंचायतघर भी हम सबने श्रमदान करके बनाया है।’’
माधव बड़े ध्यान से बूढ़े बाबा की बाते सुनता रहा। फिर बोला—‘‘बाबा ! आपकी और बातें तो मेरी समझ में आती हैं, पर एक बात समझ में नहीं आती। मेहनत से आप लोग पंचायतघर बना सकते हैं, पर इसमें लगी हुई ईंटें, पत्तर, चूना, सीमेंट, लोहा, लकड़ी-ये सब चीजें तो खरीदनी पड़ी होंगी ! भला यह तो बताओ कि इनके लिए रुपया कहाँ से आया होगा ?’’
बाबा को फिर हँसी आ गई। वह बोला—‘‘माधव ! तुम शहर में रहते हो, इसलिए तुम्हें देश में होने वाले विकास के कामों का कुछ भी पता नहीं। देखो, हम लोग अपनी मेहनत से जो कुछ कर सकते हैं, वह तो हम करते हैं, बाकी जरूरतें सरकार का विकास महकमा पूरी कर देता है। हम जो श्रमदान करते हैं, उसकी कीमत आँकी जाती है और उसी के हिसाब से विकास महकमा हमें ईंटें, पत्थर, चूना, लोहा वगैरह के लिए अनुदान देता है। यह पंचायत भी ऐसे ही बनाया गया है। हम लोगों ने महेनत से कच्ची ईंटें बनाईं, विकास महकमें से उन्हें पकाने के लिए रुपयों की मदद मिल गई। फिर हम लोगों ने पंचायत घर की नींव खोदी, मेहनत से दीवारें बनाईं और पाटने के लिए लोहा व पत्थर महकमें से मिल गया। कहने का मतलब यह कि जो काम हमारी मेहनत से नहीं हो सकता था, वह विकास महकमें ने पूरा किया। इस तरह से ही हमने अपने गाँव की हर गली पक्की कर डाली है। ये रेडियो, अख़बार और गाने-बजाने का सामान भी विकास महकमे से ही मिला है।’’
माधव मन ही मन बड़ा ख़ुश हुआ। वह सोचने लगा कि शहर में रहकर अपने देश की इस तरक़्क़ी को नहीं समझा जा सकता। उसकी आँखों में एक बार कीचड़ से भरी गलियों का नक्शा फिर घूम गया।
माधव भी सोने की बहुत कोशिश कर रहा था, पर उसकी आंखें बार-बार खुल जाती थीं। वह लगभग आठ साल पहले बंबई आया था। उस समय उसकी उमर चौदह साल के करीब थी। मां-बाप ने उसको पास के एक गांव में पढ़ने भेजा था, पर वह एक आवारा लड़के की बातों में आकर शहर देखने के लालच में यहाँ तक चला आया था। बहुत तकलीफें सहने के बाद वह एक दुकान पर नौकर हो गया था और तब से अब तक उसने बहुत कुछ कमाया-खाया था। गाँव में माँ-बाप उसकी याद में रोते रहे, खोजते रहे और जब पता न चला, तब दुःख में घुल-घुलकर दुनिया से उठ गए। माधव को शुरु में कुछ दिन घर की याद आयी और उसने अपने साथी को एक पत्र डाला। उसमें उसने अपना पता लिखा और अपने माँ-बाप के हाल-चाल पूछे। उस पत्र का जो जवाब आया, उसे पढ़कर वह घंटों फूट-फूट कर रोता रहा। फिर जल्दी घर पहुँचने के लिए डाकगाड़ी में सवार हुआ। दुःख को भुलाने के लिए वह सो जाना चाहता था, पर गाँव की बचपन की बातें और माँ-बाप का प्यार उसे बार-बार याद हो आता था। जब घर पहुँचने पर वह माँ-बाप को न देख सकेगा, यह बात ध्यान में आते ही उसका दिल धड़कने लगता था।
वह सोच रहा था कि जब मैं छोटा था, तब गाँव की गलियों में खेला करता था। गाँव के साथी बालक सवेरा होते ही मुझे बुलाने घर आ जाते थे। मैं सोता होता था, तो माँ बड़े प्यार से जगाती थी। वह तब तक गाय-भैंस का दूध दुहकर गरम कर चुकती थी और दही मथकर माखन निकाल रखती थी। मैं आँखें मलता हुआ उठता था, वह मेरा मुँह धोती थी। मैं खाने को कुछ माँगता था, तो दही और माखन के साथ रोटी मिलती थी। जब चाहता था, तब मन भर कर दूध पीता था। मैं छोटी-छोटी बातों पर रूठ जाता था तो माँ मनाती थी और जो माँगता था, वही देती थी।
बाप का प्यार वह भूला नहीं था। बार-बार उसे बीते दिनों की याद आती थी। वह सोच रहा था वे दिन, जब वह अपने बाप के साथ पास के बाजार या हाट में जाया करता था। राह में जब वह थक जाता था, तो उसके पिता उसे बड़े प्यार से गोदी में ले लेते थे। वे जब कभी बाहर से आते थे, तो उसके लिए खाने को मिठाई लाते थे।
यों ही माधव रात-भर सोचता रहा। दिन में गाड़ी के साथ दौड़ते हुए खेतों और पेड़-पौधों को देखकर अपने गांव की तस्वीर मन में खींचता रहा। एक रात और एक दिन बराबर गाड़ी में सफर करने के बाद जब वह अपने गाँव के पास स्टेशन पर उतरा तो उसके पैर भारी होने लगे। वह जल्दी-जल्दी घर की ओर चलना चाहता था, पर पैर पीछे को पड़ते जान पड़ते थे। जब गांव के पास आया तो वह सुदामा की तरह लुटा-लुटा सा पुरानी बातें ढूँढ़ने लगा। जिन दिनों वह गाँव में रहता था, उन दिनों वहाँ कीचड़ से भरी गंदी नालियाँ थीं, कोई भी मकान पक्का नहीं था, गाँव वाले खेती-बारी के काम या आपस में लड़ने-झगड़ने के सिवा और कुछ न जानते थे। पर अब तो वहाँ का नक्शा ही बदल गया था। गाँव में घुसते ही माधव ने एक पक्का मकान देखा। उस पर पंचायतघर लिखा हुआ था और वह बिजली की रोशनी में जगमगा रहा था। वहाँ एक रेडियो भी बज रहा था। बहुत-से आदमी टाटों पर बैठे हुए खबरें सुन रहे थे। माधव को कई साल बाहर रहते हो गए थे, तो भी उन्हें उसको पहचानने में देर न लगी। कई आदमी खुशी से उसकी ओर दौड़े और बड़े प्यार से उसे गले लगाने लगे। उसने भी माँ-बाप का ध्यान भूलकर बड़ों के पैर छुए, साथियों से गले मिला और छोटों को प्यार दिखाया। उसे ऐसा लगा, मानो वे सब उसी के घर के आदमी हैं। बंबई में वह इतने साल रहा, बहुत-से लोगों के साथ उठा-बैठा, पर वहाँ उससे इतना प्यार किसी ने भी नहीं किया था।
पंचायतघर में भीतर घुसकर उसने तरह-तरह के अखबार देखे। वहाँ गाने-बजाने की चीजें भी एक ओर सजाकर रखी गई थीं। माधव ने अचंभे के साथ एक बूढ़े आदमी से पूछा-‘‘बाबा ! यह पंचायतघर किसने बनवाया है ?’’
बूढ़े ने जवाब दिया—‘‘बेटा ! हम लोगों ने इसे अपनी मेहनत से बनाया है।’’
माधव शहर में रहता था, पर उसे अपने कामकाज से इतनी फ़ुर्सत नहीं मिलती थी कि वह देश के गाँवों में होने वाली तरक़्की का हाल जान सके। सन् सैंतालीस में जब उसका शहर सजाया गया था और हिंदू-मुसलमानों के झगड़े हुए थे, तब वह इतना तो जान गया था कि अंग्रेज़ चले गए और देश आज़ाद हो गया। उसके बाद कभी-कभी वह लोगों से यह भी सुन लेता था कि आज़ादी आई है, तब से देश में बहुत तरक़्क़ी हो रही है। उसके शहर में भीड़ बढ़ने लगी थी। अँग्रेज कम दीखने लगे थे। औरतें और आदमी पहले से ज़्यादा सज-धजकर सड़कों पर घूमते नज़र आते थे। माधव इसे तरक्की समझता था। गाँव की ओर ध्यान जाने पर कच्चे घर, बरसात में कीचड़ और पानी से भरी गलियाँ और चारों ओर सोती हुई जिंदगी उसे नज़र आती थी। बूढ़े बाबा के जवाब को सुनकर वह भौंचक्का-सा खड़ा रह गया।
बोला—‘‘बाबा ! आप लोगों को मेहनत से ऐसा बड़ा काम कैसे हो गया ? मेहनत तो आप लोग हमेशा करते रहे हैं, पर पहले तो कभी गाँव में एक ईंट भी कोई नहीं जुटा पाया था ?’’
वह बूढ़ा आदमी कुछ हँसा और बोला—‘माधव ! मेहनत-मेहनत में फ़र्क़ होता है। पहले हम केवल अपने लिए अलग-अलग मेहनत करते थे, पर अब गाँव की तरक़्क़ी के लिए सब मिलकर मेहनत करते हैं। जब तुमने बचपन में यह गाँव देखा था, तब अंग्रेज़ों का राज था। ज़मींदार, महाजन, दलाल, पुलिस, मुखिया आदि अनेक लोग मिलकर हमारी मेहनत का फल लूट लेते थे। पर अब तो हम आज़ाद हैं। अब हमें लूटने वाला कोई नहीं है। इसलिए जो मेहनत हम करते हैं, उसका फल भी हम खाते हैं। पहले हमको ज़्यादातर बेगार में काम करना पड़ता था, पर अब हमसे बेगार लेने वाला कोई नहीं। इसलिए अब हम लोग जहाँ जरूरत होती है, वहाँ मिलकर श्रमदान यानी बिना पैसा लिए सबकी भलाई का काम करते हैं। यह पंचायतघर भी हम सबने श्रमदान करके बनाया है।’’
माधव बड़े ध्यान से बूढ़े बाबा की बाते सुनता रहा। फिर बोला—‘‘बाबा ! आपकी और बातें तो मेरी समझ में आती हैं, पर एक बात समझ में नहीं आती। मेहनत से आप लोग पंचायतघर बना सकते हैं, पर इसमें लगी हुई ईंटें, पत्तर, चूना, सीमेंट, लोहा, लकड़ी-ये सब चीजें तो खरीदनी पड़ी होंगी ! भला यह तो बताओ कि इनके लिए रुपया कहाँ से आया होगा ?’’
बाबा को फिर हँसी आ गई। वह बोला—‘‘माधव ! तुम शहर में रहते हो, इसलिए तुम्हें देश में होने वाले विकास के कामों का कुछ भी पता नहीं। देखो, हम लोग अपनी मेहनत से जो कुछ कर सकते हैं, वह तो हम करते हैं, बाकी जरूरतें सरकार का विकास महकमा पूरी कर देता है। हम जो श्रमदान करते हैं, उसकी कीमत आँकी जाती है और उसी के हिसाब से विकास महकमा हमें ईंटें, पत्थर, चूना, लोहा वगैरह के लिए अनुदान देता है। यह पंचायत भी ऐसे ही बनाया गया है। हम लोगों ने महेनत से कच्ची ईंटें बनाईं, विकास महकमें से उन्हें पकाने के लिए रुपयों की मदद मिल गई। फिर हम लोगों ने पंचायत घर की नींव खोदी, मेहनत से दीवारें बनाईं और पाटने के लिए लोहा व पत्थर महकमें से मिल गया। कहने का मतलब यह कि जो काम हमारी मेहनत से नहीं हो सकता था, वह विकास महकमें ने पूरा किया। इस तरह से ही हमने अपने गाँव की हर गली पक्की कर डाली है। ये रेडियो, अख़बार और गाने-बजाने का सामान भी विकास महकमे से ही मिला है।’’
माधव मन ही मन बड़ा ख़ुश हुआ। वह सोचने लगा कि शहर में रहकर अपने देश की इस तरक़्क़ी को नहीं समझा जा सकता। उसकी आँखों में एक बार कीचड़ से भरी गलियों का नक्शा फिर घूम गया।
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